भाजपा के 'कोविंद व्यूह' से कैसे निकलेगा विपक्ष?

राष्ट्रपति चुनाव के लिए अपने उम्मीदवार की घोषणा करके सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने विपक्ष की संभावित एकता में फिलहाल दरार पैदा कर दी है.
संसद से राज्यों के विधानमंडलों तक फैली मतदाता-सूची और उभरते दलीय समीकरणों के हिसाब से भारतीय जनता पार्टी ने अपने उम्मीदवार की जीत लगभग सुनिश्चित कर ली है.
दक्षिणी राज्यों के कई गैर-एनडीए दलों ने भाजपा-समर्थित उम्मीदवार को समर्थन देने का पहले ही संकेत दे दिया था.
लेकिन विपक्ष के लिए यह लड़ाई सिर्फ जीत-हार की नहीं है. सन् 2019 में होने वाले संसदीय चुनाव के लिए भाजपा-नीत गठबंधन के विरूद्ध मज़बूत गोलबंदी के जरिए ठोस वैकल्पिक ताकत बनने का भी यह एक बड़ा मौका है.
लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा-नीत एनडीए एक बार फिर विपक्ष की भावी रणनीति को भेदता नज़र आ रहा है.
सोमवार को जब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद के नाम की घोषणा की तो उन्होंने कोविंद की दलित-पृष्ठभूमि को खासतौर पर रेखांकित किया.
इसके कुछ ही देर बाद यूपी और बिहार सहित कई राज्यों के गैर-एनडीए दलों के कुछ प्रमुख नेताओं के दिलचस्प बयान आने शुरू हो गये.
इनमें कुछ ने कोविद को प्रत्याशी बनाने के भाजपा के फैसले को 'अच्छा फैसला' कहा तो कुछ ने यह भी कहा कि अब कांग्रेस-वाम विपक्षी गोलबंदी की तरफ से भी किसी दलित या आदिवासी को ही उम्मीदवार बनाया जाना चाहिये, तभी यह लड़ाई दमदार हो सकेगी.
ओडिशा के मुख्यमंत्री और बीजद नेता नवीन पटनायक और तेलंगाना में सत्तारुढ़ टीआरएस ने विपक्ष के प्रत्याशी का नाम सामने आने से पहले ही भाजपा प्रत्याशी को समर्थन का एलान कर दिया.
समझा जाता है कि पटनायक ने राज्य के भावी चुनाव में दलित मतदाताओं के बीच अपनी पकड़ बनाये रखने के इरादे से यह जल्दबाजी दिखाई.
भाजपा के धुर विरोधी कुछ नेताओं ने तो यहां तक कहा कि विपक्ष अगर कोई दलित उम्मीदवार नहीं देता तो उनकी पार्टी कोविंद के समर्थन पर विचार करेगी.
इससे एक बात तो साफ हो गई है कि उम्मीदवार के एलान के साथ भाजपा चुनावी-गणित और राजनीतिक व्यूह-रचना में विपक्ष से बहुत आगे हो चुकी है.
क्या विपक्ष इस शुरुआती झटके से उबर सकेगा?

Comments